करौली जादों क्षत्रियों के देवगिरी दुर्ग का इतिहास –
यह किला करणपुर कस्बे से पश्चिम दिशा में कल्याणपुरा के ऊपर चम्बल नदी के किनारे के टीलों के बीच एक पहाड़ी पर निर्मित है । यहाँ भयानक जंगल है । किला पूर्णरूप से लगभाग खंडर हो चूका है , सिर्फ यहाँ कुछ राजप्रसादों के टूटे- फूटे अवशेष नजर आतें हैं । यहाँ एक बावड़ी भी बनी हुई है जो जंगली वनस्पतियों से पूरी तरह अच्छादित है , जिसे दूर से तो स्पस्ट: पहचाना भी नही जा सकता । यहाँ एक जजर्र स्थिति मे शिलालेख नज़र आता है , जो यहाँ के आतीत की गौरवमय गाथा को व्यक्त कर रहा हैं । यह दुर्ग घने बियाबान जंगलो एवं पहाड़ों के बीच स्थित होने के कारण राज्य की आपात स्थिति में , राज्य का खजाना व जनाना ( महिलाओं ) को यहाँ लाकर सुरक्षित रखा जाता था ।राजा मानिकचंद की मृत्यु के बाद उनके छोटे पुत्र प्रताप सेन सन 1435ई0 के लगभग करौली राज्य की गद्दी पर विराजमान हुए।वे राजशासन तिमनगढ़ से उंटगिरी ले आये थे । उस समय इनके अधिकार क्षेत्र में उंटगिरी के अलावा देवगढ़ या देवगिरि भी था।इसके बाद देवमणि शासक हुए ।इनकी मृत्यु होने की बजह से इनके छोटे भाई चन्द्रसेन सिंहासन पर बैठे ।देवगिरि में चन्द्रसेन का राज्यभिषेक सन 1499ई0 में हुआ था।ये धर्मात्मा गोपाल जी का भजन करते थे।
राजा चन्द्रसेन किले में स्थित लक्ष्मीनारायन मंदिर में ही ईश्वर आराधना करते थे राजा चंद्रसेन के पुत्र में भारतीचंद्र का निधन उनके सामने ही हो गया था इस लिए उन्होंने अपने ठठ
यहाँ उस समय की एक कहावत प्रचलित है की “ देवगिर कौ डाडों , नौ करोड़ कौ भांडों ‘ अर्थात इस दुर्ग में इस रियासत की अटूट धन सम्पदा सुरक्षित रूप में दफ़न की हुई है ।यहाँ आबादी के प्रमाण उपलब्ध हैं ।ऐसा प्रतीत होता है की यह दुर्ग ऊंटगिर के शासकों का आवास था ।तथा देवगिर में लोग रहेते थे ।सन 1506- 07 ई0 में सिकंदर लोधी ने इस दुर्ग पर आक्रमण करके इसे क्षति पहुंचाई । यहाँ देवालय भी था ,जिसके रागभोग के लिए कृषिभूमि भी आवंटित थी । देवगिर मूल के अनेक परिवार कालान्तर में करणपुर आकर बस गए ।तथा कुछ परिवार राजधानी ऊंटगिर से करौली बदलने के बाद शासकों के साथ करौली आ गये । दुर्ग के दक्षिण में चम्बल इसका एक परकोटा था । तत्कालीन स्थापत्य और विशाल भवनों , बावड़ी के अवशेषों को देखकर यह अंदाज अवश्य लगाया जा सकता हैं कि यह बस्ती कभी धनाढ्य लोगों की अवश्य रही होगी जिसका सबसे ज्यादा विनाश मुस्लिम आक्रान्ताओं ने किया ।
करौली ख्यात के अनुसार राजा चन्द्रसेन के पुत्र भारतीचन्द की हाड़ीरानी ने इस स्थान पर बाग़ और बावड़ी का निर्माण कराया था । बावड़ी के अवशेष आज भी यहाँ दिखाई देतें हैं । उस समय इस स्थान को देवघर / देवगड़ के नाम से पुकारा गया , क्योंकि उक्त बावड़ी का निर्माण महाराजा गोपालदास जिन्हें उस समय देव बहादुर का खिताव मिला हुआ था , के दिल्ली सेवाओं से मुक्त होकर वापस आने के बाद किया गया था । ऐसा प्रतीत होता है कि बाद में उसी खिताव के नाम पर इस क्षेत्र का नाम देवगड़ पड़ा हो जो कालन्तर में अपभ्रंश होकर देवगिरी हो गया । ऊंटगिर दुर्ग के ठीक सामने पूर्व में चम्बल से सटे मिट्टी के टीले पर सघन वृक्षों के मध्य इस गढ़ के कुछ अवशेष नजर आतें हैं । परकोटे के नाम पर कुछ भी नहीं मिलता । इस दुर्ग की बर्बादी भी किसी प्रकार का संरक्षण नहीं मिलने के कारण हुई है ।
सन्धर्व—-
1-गज़ेटियर ऑफ करौली स्टेट -पेरी -पौलेट ,1874ई0
2-करौली का इतिहास -लेखक महावीर प्रसाद शर्मा
3-करौली पोथी जगा स्वर्गीय कुलभान सिंह जी अकोलपुरा
4-राजपूताने का इतिहास -लेखक जगदीश सिंह गहलोत
5-राजपुताना का यदुवंशी राज्य करौली -लेखक ठाकुर तेजभान सिंह यदुवंशी
6-करौली राज्य का इतिहास -लेखक दामोदर लाल गर्ग
7-यदुवंश का इतिहास -लेखक महावीर सिंह यदुवंशी
8-अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली -जिला करौली
9-करौली जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-लेखक डा0 मोहन लाल गुप्ता
10-वीर-विनोद -लेखक स्यामलदास
11-गज़ेटियर ऑफ ईस्टर्न राजपुताना (भरतपुर ,धौलपुर एवं
करौली )स्टेट्स -ड्रेक ब्रोचमन एच0 ई0 ,190
12-सल्तनत काल में हिन्दू-प्रतिरोध -लेखक अशोक कुमार सिंह
13-राजस्थान के दुर्ग -लेखक रतन लाल मिश्र
लेखक–– डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव-लाढोता, सासनी
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश
एसोसिएट प्रोफेसर ,कृषि विज्ञान
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह ,राजकीय महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001