क्षत्रियों /राजपूतों के नामांत में “सिंह “शब्द लगाने का ऐतिहासिक शोध ।
यह जानना भी आवश्यक है कि क्षत्रियों (राजपूतों )के नामों के अंत में “सिंह “पद कब से लगने लगा ।नामों के अंत में लगाने के विषय में इस शब्द की उत्पत्ति कब हुई ,इतिहास मोन है ।”सिंह “संस्कृत का शब्द है ,जिसका अर्थहोता है श्रेष्ठ (सिंह के समान )।महाभारत व् पुरानकालीन युग में हमे ऐसा कोई नाम नही मिलता जिसके अंत में “सिंह “लगा हो ,यहाँ तक कि क्षत्रियों के किसी भी पौराणिक वंश सूर्य और चंद्र वंशमहाराज हरिश्चंद्र , ययाति ,भगवान् राम ,श्रीकृष्ण ,युधिष्ठर ,भीष्म आदि क्षत्रिय राजाओं के नाम के अंत में भी “सिंह “पद नहीं पाया जाता । वहां किसी राजा के नाम के अंत में “सिंह “पद न होने से निश्चित है कि प्राचीन काल में भी सिंहांत नाम नहीं होते थे ।इसी कारण इतिहासकार इस शब्द के विषय में कई अनुमान लगाते रहे है ।
प्रथम “सिंह” सिद्धार्थ (बुद्ध )
भारतीय इतिहास में आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व हमें सर्व प्रथम प्रसिद्ध शाक्यवंशी राजा शुद्दोदन के सुप्रसिद्ध पुत्र सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध )के नाम के अनेक पर्यायों में से एक “शाक्यसिंह” भी अमरकोश आदि में मिलता है ,परन्तु वह वास्तविक नाम नहीं है ।गौतम बुद्ध “शाक्यसिंह “शाक्यवंश के क्षत्रियों में श्रेष्ठ होने के कारण कहलाते थे —–
सं शाक्यसिंह :सर्वाथम् सिद्ध :शौदोदनिश्चस् :
गौतमश्चार्क बन्धुश्च मायादेवी सुतश्चस् :।।
अमरकोश :प्रथम कांड ,स्वर्ग वर्ग ।
“सिंह”सदा से ही अपनी श्रेष्ठता ,शक्ति आदि के कारण अग्रणी रहा है ।इसी कारण “सिंह”के पर्याय शब्द भी विभिन्न नामों से प्रयोग किये जाते रहे है ,जो उनके उपनाम ही प्रतीत होते है ।प्राचीनकाल में “सिंह “,शार्दुल , पुंगव आदि शब्द श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के लिए शब्दों के अंत में जोड़े जाते थे ,जैसे —“क्षत्रियपुंगव “(क्षत्रियों में श्रेष्ठ ), “राजाशादुर्ल “(राजाओं मेंश्रेष्ठ ),”नरसिंह “(पुरुषों में सिंह के सदृश )आदि ।
नाम के अंत में “सिंह “शब्द मिलता है सम्राट विक्रम (ई0 पूर्व 57 के लगभग )के राज्य सभासद अमरसिंह के नाम में ।यह विक्रम के नवरत्नों में एक जैन साधू था जिसने “अमरकोश “की रचना की ।इसके बाद हमें लगभग 200 वर्ष तक कोई इस प्रकार का नाम नहीं मिलता ।
दुतीय सदी के आरम्भ में हमें गुजरात ,राजपूताना ,मालवा ,काठियावाड़ ,दक्षिण आदि प्रांतों पर राज करने वाले मध्य एशिया शाकदीप (ईरान ) की शाक्य जाति के ईरानी क्षत्रपवंशी महा प्रतापी राजा रुद्रदामा के दुतीय पुत्र महाक्षत्रप “राजा रूद्र सिंह”के समय के शक संवत 103 से 118 (वि0सं0238 से सं0253 =ई0 सन्181से सन्196 )तक के मिले सिक्कों तथा शक सं0 103 (वि0सं0238 =ई0सन्181 )बैसाखसुदि 5के उसके शिलालेख में उसके नाम के साथ “सिंह “शब्द लिखा मिलता है । और वि0 सं 0 335 के लगभग इसी वंश का राजा विश्व सिंह ,चौथा सिंह नामधारी व्यक्ति था । काफी समय तक भारत में राज्य करने के कारण इन विदेशी शक लोगों ने यहाँ के नाम ,धर्म और संस्कृति आदि को ग्रहण कर लिया और यहाँ के क्षत्रियों (राजपुत्रों )के साथ शादी सम्बन्ध भी करने लग गये ।
इसके बाद इस तरह के नाम रखने का रिवाज दूसरे राजवंशों में भी शुरू हुआ ।दक्षिण के सोलंकी क्षत्रियों में जय सिंह नामधारी एक राजा वि0 सं0 464 (ई0 सन् 407 )के लगभग हुआ और फिर उसी वंश में जय सिंह दुतीय वि0 सं0 1099 (ई0 1042 )में हुआ जिसने अपने नाम के पीछे “सिंह “शब्द का प्रयोग किया । विक्रम की दसवीं सदी में मालवे के परमार क्षत्रिय राजा वैर सिंह प्रथम ने अपने नाम के पीछे “सिंह”शब्द लगाया ।, इसी प्रकार 12 वीं शताब्दी में मेवाड़ के गुहिलोत वंशियों में महाराणा उदयपुर मेवाड़ के पूर्वज जैसे वैर सिंह ,विजय सिंह (वि0 सं0 1178 ),अमर सिंह आदि के नाम के अंत में “सिंह “शब्द का प्रयोग मिलता है । इसी प्रकार कछवाहों में पहले पहल नरवर (ग्वालियर )वाले राजा गगन सिंह ,शरद सिंह और वीर सिंह ने “सिंह “पद लगाया ।जैसा कि वीर सिंह देव कछवाहा के वि0 सं0 1177 की कार्तिक वदी 30 रविवार (ई0 सन् 1120 ता0 21 नवंबर )के शिलालेख से प्रकट है ।
चौहानों में सबसे पहले जालोर के राजा समर सिंह का नाम वि0 सं0 की तेरहवीं शताब्दी में मिलता है जिसके पीछे उदय सिंह ,सामंत सिंह आदि हुये ।और मारवाड़ के राठोड़ों में 17 वीं शताव्दी में राव राय सिंह राठौड़ (1638-40 वि0 )से “सिंह “शब्द लगने लगा । बाद में तो राठौड़ों में इस तरह के नामों का ख़ास तौर से प्रचार हुआ। मथुरा ,बयाना ,तिमंगढ़ ,करौली के यदु वंशी /शुरसैनी/यादव क्षत्रिय राजाओं में “सिंह “के स्थान पर “पाल “शब्द का प्रयोग मिलता है जिसकी शुरुआत सन् 800 के आस पास भगवान् श्रीकृष्ण के बाद 77 वीं पीढ़ी में पैदा हुए मथुरा के राजा धर्मपाल के नाम के साथ प्रमाण मिलते है जो बाद में उनके कई वंसजों जैसे मथुरा के राजा इच्छपाल (सन् 879 ई0 )में उनके बेटे ब्रह्मपाल ,विनायक पाल के अलावा बाद में उन्ही के वंशज बयाना ,तिमंङ्गढ़ के शासक जायेंद्रपाल ,बिजयपाल ,तिमानपाल के बाद आज तक करौली के यदुवंशी राजपूतों में आज तक ये “पाल “शब्द का प्रचलन है ।जो भी यदुवंशी राजपूत करौली से माइग्रेट होकर कहीं भी जाकर बसा सभी जगह ये “पाल “शब्द उनके नाम के पीछे आज तक प्रचलन में है ।इसके बाद लगभग 18 वीं शताब्दी में “सिंह “शब्द का प्रचलन सभी राजपूतों में हो जाता है।अतः स्पस्ट है कि क्षत्रियों के नामों के पीछे “सिंह “शब्द लगाना बल ,पराक्रम तथा विजय का सूचक है।
मुगलकाल में “सिंह “शब्द का अधिकाधिक प्रचार
मुगलकाल में “सिंह “शब्द का प्रचार अधिक हुआ और राजपूतों के अलावा अन्य मार्शल जातियां भी इस शब्द का प्रयोग करने लगी ।”सिंह “शब्द अब उपाधि नहीं रहा ।सिंह का अर्थ श्रेष्ठ (सिंह के समान )था ,यह भी लोग भूल गये ।”सिंह “से सम्मान और बहादुरी का अर्थ समझा जाने लगा ।एक तरफ मुग़ल और यवन अमीर उमरा ,फौजबक्शी ,सिपहसालार जंग वगैरा अपने नाम के आगे लगाते थे वहां हिन्दू वीरों ने अपने नाम के साथ “सिंह”जोड़ना आरम्भ किया ।
राजपूतों की देखा -देखी ही सिक्खों के दशवे क्रांतिकारी गुरु गोविन्दसिंह जी (वि0 सं0 1722 -65 ) ने तो अपने पन्थ (दल )के लोगों के नाम के अन्त में “सिंह “शब्द अनिवार्य रूप से लगाया ।18 वीं शताब्दी में अपने शिष्यों से “सिंह “शब्द का प्रचार किया ।यहॉं तक कि जिस जाति या वर्ण का पुरुष सिक्ख धर्म का अनुयायी बन जाता उसे अपने नाम के अन्त में “सिंह “शब्द लगाना अनिवार्य थाऔर अब भी है ।समय भी यही बतलाता था क्यों कि उधर पंजाव व् सीमा -प्रांत के मुसलमान जहाँ अपने को बड़ा बताने की गरज से अपने नाम के साथ “खान”या खाँ”शब्द जोड़ते थे तो सिक्खों ने भी उनके मुकाबिले में अपने को “सिंह “(सिंह के सामान )कहलाना आरम्भ किया ।यही रिवाज आज तक सिक्ख सम्प्रदाय में चला आया है।उनलोगों में चाहे जो भी वर्ग हो सभी सरदार कहलाते है और नाम के अन्त में वीरता का सूचक शब्द “सिंह “जरूर जोड़ते है ।
सारांश यह है कि पंजाब के सिक्ख और राजपूताने के राजपूत क्षत्रियों में 18 वीं सदी से “सिंह “शब्द लिखने का प्रचलन अधिक हुआ ।इसे “यथा नाम तथा गुण “की उक्ति के अनुसार वीरता का पोषक समझकर दूसरी कौमों के व्यक्ति -विशेष ने भी “सिंह “शब्द लगाया ।
इस उपरोक्त व्रतांत से पता चलता है कि बौद्धकाल से गुप्तकाल 7 वीं शताब्दी तक “सिंह “शब्द उपाधि रूप में ही रहा ।फिर 10 वीं शताब्दी से 18 वीं शताब्दी तक वीरता का सूचक बना ।फिर राजपूतों ने इस पर अधिकार कर लिया ।
आज क्षत्रियों /राजपूतों की देखा देखी अपनी महत्वाकांक्षा को प्रदर्शित करने के लिए समय के बदलाव के साथ हर कोई “सिंह “लिखने लगा है।इस लिए अब सिंह के साथ राजपूतों को अपना उपनाम जो वंश को संबोधित करता है लिखना भी चाहिए ।जय हिन्द।जय राजपुताना।जय श्री कृष्णा।
लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन ,
गांव -लढोता ,सासनी ,
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।
सह-आचार्य ,कृषि विज्ञान
शहीद कैप्टन रिपुदमन सिंह राजकीय महाविद्यालय सवाईमाधोपुर ,राजस्थान
राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा (वांकानेर )