20 वीं सदी में राजा अवागढ़ सूरज पाल सिंह बहुमुखी -प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व —–
हमारा देश दिव्य -विभूतियों का जन्म -स्थान है ।यहाँ समय -समय पर ऐसे नर -रत्न महानुभाव उत्पन्न हुए है;जिन्होंने निज उदात्त -लोक -कल्याणकारी -कार्यों द्वारा त्रस्त -मानव का संत्राण करके उसे संपन्न और सुखी बनाया है ।आधुनिक नव -भारत के निर्माण में ऐसे ही महानुभावों का हाथ है ,जिन्होंने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्षरूप से देशोत्थान में भाग लेकर उसे दासता -पाश से उन्मुक्त कराया और लोक -जीवन में नवीन चेतना उत्पन्न की ।ऐसे ही देश प्रेमी महानुभावों में एक अवागढ़ के राजा श्री सूर्य पाल सिंह जी थे।हमारे चरित -नायक सादा जीवन उच्च विचार के प्रतीक ,राष्ट्रीय लोक -जीवन के उन्नायक तथा एक आदर्श प्रगति -पथ -गामी राजा थे ।
आपका जन्म वैभव -सम्पन्न अवागढ़ -राज -परिवार में 28 अक्टूबर सन् 1896 में हुआ था ।आप यशस्वी स्वर्गीय राजा बलवंत सिंह जी (सी0 आई0 ई0 )के सुयोग्य पुत्र थे ।उस समयके राजा -रईस प्रायः लोक -हितकारी कार्यों से विमुख होकर वैभव -जन्य विलासता पूर्ण जीवन -यापन के अभ्यस्त थे ।उनके पास लोक -हितकारी -कार्यों के लिए समय और पैसा न था ।परन्तु अवागढ़ के राजा सूर्य पाल सिंह जीइसके अपवाद थे ।आप ने लोक हितकारी कार्यों में समय और पैसा दिया ।आप की शिक्षा -दीक्षा अजमेर के मेयो कालेज में हुई थी ।सन् 1917 ई0 में कोर्ट ऑफ़ वार्ड हटी और श्री सूर्य पाल सिंह जी को अवागढ़ का राज्याधिकार मिला ।आप का विवाह सन् 1913में सरगुजा नरेश की पुत्री वालेश्वरी कुमारी जी के साथ हुआ ।आपके 3 पुत्र युवराज दिगिवजय पाल सिंह ,कुँवर धर्मपाल सिंह जी व् कुंवरयोगेंद्र पाल सिंह जी ।
यहाँ मैं ये उल्लेख करना चाहूँगा कि श्रीमान् अवागढ़ -नरेश को सब लोग “श्री हुज़ूर ,श्री महाराज ,महाराज “आदि सम्मानपूर्ण शब्दों से सम्बोधित किया करते थे ।श्री राजा साहब को ,ये वैभव तथा राज -सत्ता सूचक सम्बोधन रुचिकर न जंचे ।उन्होंने अपने लिए “दादाजी “शब्द सबसे अच्छा समझ कर ,उन्हें इसी शब्द से सम्बोधित करने का आदेश दिया ।वे सभी लोगों के द्वारा “दादाजी “शब्द से पुकारे जाने लगे ।अतः मैं उनके लिए इस लेख में भी “दादाजी “शब्द प्रयोग करूँगा ।
सन् 1917 ई0 में कोर्ट आफ वार्ड हटी और उन्हें अवागढ़ का राज्याधिकार मिला उस समय उ0 प्र0 के गवर्नर लार्ड मैस्टन ने दादाजी को पत्र लिखा कि आप उनके आदमी को रियासत का मैनेजर नियुक्त कर दें ,किन्तु इस बात को उन्होंने पसन्द नहीं किया और गवर्नर साहब को यह उत्तर दिया कि मैं अपनी रियासत में अपनी पसन्द का मेनेजर रखना चाहता हूँ ।इस उत्तर से दादाजी की निर्भीकता ,स्वाभिमान तथा दृढ़ता का परिचय मिलता है और ज्ञात होता है कि वे प्रारम्भ से ही अटल विचार के महानुभाव थे ।इसी प्रकार की एक घटना ईसाई मिशन बरहन के प्रसंग में है ,जिससे उनकी दृढ़ -चित्तता का और पता चलता है ।
अँग्रेज ईसाई धर्मावलम्बी थे ।शासन के अतरिक्त ईसाई धर्म का प्रचार करना उनका मुख्य उद्देश्य था ।इस उद्देश्यपूर्ति के लिए ईसाई मिशनरियों का देश में जाल फैला हुआ था ।अँग्रेज अधिकारी उनकी प्रच्छन्न रूप से सहायता करते और सभी संभव सुविधाएँ उनको प्रदान करते थे ।ईसाई मिशन के प्रचार के प्रसार में एक बात दादा जी के सामने आयी।बरहन गांव जिला आगरा में ,ईसाई मिशन का एक सेंटर था।सेंटर की भूमि के पटटे की अवधि जब समाप्त हुई तब ,राजा साहिब ने उन पादरियों को वहां से हटने के लिए लिखा ।उस समय भारत के वाइसराय तथा गवर्नर जनरल के अधीनस्थ ईसाई धर्म का प्रचार विभाग आता था।इस लिए बरहन के सबसे बड़े पादरी साहब सीधे वाइसराय के पास पहुंचेऔर उनसे अनुनायन -विनय की कि इस मामले में सहायता करें तथा उन्हें बरहन से न हटने दें।वाइसराय महोदय ने तत्काल उ0 प्र0 के गवर्नर को लिखा कि आप इनकी सहायता करें और राजा साहिब अवागढ़ को समझाइये कि वे पादरियों को बरहन से न हटायें ।गवर्नर दादाजी के स्वभाव व् प्रभाव से परिचित थे ,इस लिए उन्होंने सीधा दादाजी को लिखना पसंद नही किया।उन्होंने आगरा के कमिश्नर को पत्र लिखा कि आप राजा साहिब को संझाएंकि वे इन पादरियों को बरहन से न हटायें।कमिशनर साहिब मि0 ग्रांट जो राजा साहिब के साथ पोलो खेलते थे ,वे हिचकिचाये और उन्होंने राजा साहिब से न कह कर उनके छोटे भाई राव कृष्ण पाल सिंह जी को बुलाकर वायसराय व् गवर्नर साहिब के पत्र दिखाए ।पत्रो को देख कर राव साहिब भी घबराये ,क्यों कि वह समय प्रथम विश्व युद्ध के बाद का समय था ,जिसमें ब्रिटिश साम्राज्य का प्रताप -सूर्य अपनी चरम सीमा पर पहुंचा हुआ था ।उनके प्रभाव से सभी आतंकित थे ,फिर भला किसका साहस जो प्रभु -सत्ता संपन्न भारत सम्राट के प्रतिनिधि तथा गवर्नर के आदेश की अबहेलना करे ।भारत के सभी राजा -महाराजा उनकी कृपा -दृष्टि के अभिलाषी थे ।उनके आदेशों अथवा परामर्शों की अबहेलना करना ,संकट को निमंत्रण देना था ।राव साहिब ने अवागढ़ जाकर अपने बड़े भाई राजा साहिब को बहुत समझाया परन्तु दादाजी टस से मस नहीं हुए और अपनी बात पर दृढ़ रहे ।उन्होंनेस्पस्ट कहा कि मैं तो इन पादरियों को बरहन से हटा कर मानूंगा ।श्री राव साहिब ने आगरा आकर सब बातें कमिश्नर से कहीं।सुनकर कमिश्नर भी स्तब्ध रह गया ।दादाजी की बात कानूनन सही थी इस लिए अंग्रेज कमिश्नर चुप रहे और पादरियों को सलाह दी कि वे अपना सेंटर दूसरी जगह हटालें।इस प्रकार रियासत की वह जमीन ,जहाँ अब बरहन इण्टर कालेज है ईसाईयों से खाली कराई थी ।
इस घटना से राजा साहिब के अदम्य साहस ,स्वाभिमानी ,आत्म -विस्वास ,निर्भीकता एवं दृढ़ -निश्चयी -नीति का पता चलता है ।वे आजीवन इन्हीं शौर्यपूर्ण पर्वर्तियों से ओत प्रोत रहे और निश्चय स्वनिर्मित कर्तव्य -पथ से विचलित न हुए ।वस्तुतः उनकी संकल्प -शक्ति अजेय थी ।0
रियासत का कार्य -भार सम्हालने के कुछ ही समय बाद उन्होंने अँग्रेज मेनेजर को हटाकर ,उसके स्थान पर सुयोग्य भारतीय मेनेजर को नियुक्त किया ।उनमें स्वदेशानुराग ,जन्म से ही कूट -कूट कर भरा था ।उन्होंने अपने भारतीयों के सामने अंग्रेजों को कभी अहमीयत नहीं दी ।वे भारतीय संस्कृति के प्रबल समर्थक एवंपोषक थे ।
अवागढ़ राज परिवार में दान देने की प्रवर्ति सर्वोपरि रही है ।राजा साहिब राज्य की बचत का बहुत बड़ा भाग सार्वजनिक कार्यों में व्यय किया करते थे ।जनता के लिए कल्याणकारी -कार्य उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता रहती थी ।
सन् 1914 से 1928 तक यानि 14 वर्ष का समय बलवंत राजपूत कॉलेज का वड़ा नाजुक दौर रहा ।इसके बाद जब राजा सूर्य पाल सिंह जी को संस्था का उपाध्क्ष बनाया गया तो उन्होंने उसी समय 144000 रूपये की आर्थिक मदद करके संस्था को पुनः नवज्योति प्रदान की।इसके बाद पुनः आरम्भ हुआ इस संस्था का नया विकास का युग ।राजा सूर्यपाल सिंह जी का इस संस्था के विकास में महान योगदान रहा है ।
राजा साहिब सूर्य पाल सिंह जी ने बाहर के अनेक मेघावी छात्रों को छात्र -वर्तियां देकर उनको विद्यापार्जन में सहायता दी । राजा साहिब प्रत्येक समाज के गरीवऔर असहाय लोगों को जन्म -विवाह ,शोक आदि जीवन की प्रत्येक दशा के अवसर पर सहायता करते थे ।विधवाओं तथा दीन व्यकितियों को जीवन -निर्वाह के लिए स्थाई आर्थिक सहायता देते थे ।सहायता प्राप्त संस्थाओं में काशी विस्वविद्यालय बनारस ,शांतिनिकेतन ,सोंगरा पाठशाला ,राम -कृष्ण मिशन ,महाविद्यालय ज्वालापुर ,किशोरीरामन् हाईस्कूल मथुरा ,धर्म समाज कॉलेज अलीगढ ,सावरमती आश्रम गुरुकुल ,वृंदावन आदि है ।इन सब संस्थाओं के विकास में राजा साहिब अवागढ़ ने आर्थिक मदद की ।अवागढ़ में शिक्षित लोगों के ज्ञानार्जन के लिए एक सार्वजनिक बृहद पुस्तकालय निर्मित करबाया जिसमें स्वदेशी पुस्तकों के आलावा देशी समाचार -पत्र आते थे ।राजा साहिब ने जनता को साक्षर बनाने के लिए गांवों में रात्रि -पाठशालाएं भी स्थापित की थी ।
अंग्रेजों के समय में भी राजा साहिब सूर्य पाल सिंह जी ने स्वदेशी वस्तु निर्माण को पूरी शक्ति से प्रोत्साहन दिया ।प्रदर्शनियों का आयोजन किया और स्वदेशी वस्तु निर्माताओं को पुरस्कृत करके उनके साहस को भी बढ़ाया ।राष्ट्रीय आंदोलन से केबल सहानुभूति ही नही प्रकट की ,वरन उसे प्रकट या अप्रकट रूप से आर्थिक सहायता भी प्रदान की और किया खुले रूप से अपने राष्ट्रीय नेताओं का अभिनन्दन ।
यह बात किसी से छिपी नहीं है जब राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी एटा पधारे थे ,तब वे राजा अवागढ़ के अतिथि हुए थे और राजा साहिब ने श्राद्धावनत होकर राज्य की एक दिन की आय उन्हें गुप्तरूप से अर्पित की गई थी ।यही नही समय -समय पर उन्हें और भी आर्थिक सहायताएं अवागढ़ राज परिवार ने दी ।बापू के वे अनन्य भक्त थे और राजा साहिब को भी बापू का वरद आशीर्वाद प्राप्त था ।राष्ट्रपिता गांधी जी राजा साहिब अवागढ़ से बहुत प्रसन्न थे और उनके प्रजानुरंजन कार्यों के प्रशंसक थे ।यह उस समय की बात है जब गाँधी जी भक्त राज -द्रोही समझे जाते थे उनके साथ कठोरता का व्यवहार किया जाता था ।ऐसे समय में अवागढ़ राजा सदृश वैभव -संपन्न महानुभावों द्वारा स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे राज नेताओं को सहयोग प्रदान करना अथवा उन्हें किसी प्रकार की आर्थिक सहायता पहुँचाना बड़े साहस का काम था । राजा साहिब कवीन्द्र रवींद्र नाथ टैगौर जी के महान व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित थे।उन्होंने गुरुदेव से कई बार भेंट की और शान्ति निकेतन को शक्ति भर अनुदान दिया ।
अवागढ़ राजा सूर्य पाल सिंह जी ने अपने राष्ट्रीय नेताओं को सहयोग हमेशा दिया ,उनसे भेंट भी की और उन्हें आर्थिक सहयोग भी किया ,परन्तु जीवन पर्यन्त किसी अंग्रेज अधिकारी से न भेंट की और न उन्हें कोई भोज ही दिया ।ये बातें उनके सत्साहस ,आत्मगौरव ,तथा विशुद्ध स्वदेशाभिमान की परिचायका है ।
दादा जी (राजा साहिब)संगीत के बड़े प्रेमी थे और वे भी संगीतज्ञ थे ।वे हिंदी के अनन्य प्रेमी थे ।राजा साहिब स्वराज्य प्राप्ति से पूर्व ही ,जबकि हिंदी को राजकीय क्षेत्र में कोई विशेष सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त न था ,उसे अपने यहाँ सर्बोच्च स्थान दे चुके थे।राज्य की कार्यालयीय भाषा हिंदी थी ।हिंदी के लेख ,कविताओं की धूम रहती थी ।दरबार में कवि -सम्मलेन होते थे और कवियों को पुरुस्कृत करके सम्मानित किया जाता था ।
व्यकित्व तथा कर्तव्य का उनमें विचित्र समन्वय था ।उनका तपस्वियों का सा रहन -सहन सादा और जीवन सयमशील था ।श्रृंगारप्रियता एबं फैशनपरस्ती के वे प्रबल विरोधी थे ।राज -वैभव का मादक प्रभाव उनको प्रभावित न कर सका था ।वे हिंदी साहित्य व् संगीत के प्रेमी थे ।ईश्वर भक्ति तथा देश -भक्ति उनकी जीवन सहचरी थी ।उनका सात्विक सरल स्वभाव था।उनमें मांवताके प्रति करुणा ,प्रेम और संबेदना थी ।कर्तव्य और अधिकार में उन्होंने कर्तव्य को ही प्राथमिकता हमेशा दी ।लोक सेवा और कर्तव्य पालन उनके जीवन का व्रत था ।आत्म -प्रशंसा से उन्हें नफरत थी ।साधू महात्माओं और सज्जनों के प्रति सम्मान उनमे बहुत था ।अन्याय ,असत्याचारण ,क्रूरता ,अहंकार ,छलदाम्य ,मिथ्यावादिता आदि असद् व्रतियों के प्रबल शत्रु थे ।वे मानवता और सदाचार के प्रबल समर्थक एवंप्रतिष्ठानक थे ।
राजा साहिब ने अपने धार्मिक एवं सामाजिक व् आर्थिक सहयोग के कार्यों की कभी बिज्ञापन नही दिया और न अपने कर्तव्य की डींग मारी ।वे चापलूसी कभी पसंद नही करते थे ।प्रजा -पालन ,जन -सेवा उनके जीवन का पवित्र व्रत था ।उन्होंने प्रजा का पैसा प्रजा -हित में ही लगाया ।उन्होंने लोक -कल्याणकारी कार्यों में अपना सारा कोष समाप्त कर दिया ।वे अनन्य देशभक्त और प्रजा -प्रेमी थे ।उन्होंने प्रजाहित तथा देशोत्थान के महत्वपूर्ण कार्य किये ।
अवागढ़ राजा साहिब ने त्यागमय लोक -सेवा -निरत पवित्र जीवन का आदर्श उपस्थित करके आज के पथ -भृष्ट मानव को कर्तव्य पाठ पढ़ाया है ।उनका -व्रत आचार तथा कर्तव्य शास्त्र का एक उज्जवल अध्याय है ,शासनाधिकारी और नागरिक के लिए एक प्रशस्त पाठ है ।आज लोगों ने कर्तव्य को भुला कर अधिकार का अतिक्रमण करके लोक -जीवन में अस्तव्यस्तता उत्पन्न करदी है ,वे कर्तव्यपरायण मुख होकर अधिकार का दुरपयोग और अतिक्रमण करते हुए भी देखे जाते है ।वे अवागढ़ नरेश के जीवन से पाठ पढ़ें ,शिक्षा लें और उनकी शिक्षा को आत्मसात् करके अपने नागरिक जीवन को सर्व कल्याणकारी बनायें ।आज देश को जन -सेवा -निरत -कर्तव्यनिष्ठ नागरिकों की आवश्यकता है ।बिना उनके राष्ट्र के लोक -जीवन में पवित्रता और शांतिमय सुस्थिरता नहीं आ सकती ।देश को अवागढ़ -नरेश सदृश लोक -सेवा -ब्रती तपस्वी महानुभावों की सर्वाधिक आवश्यकता है ।
मुझे आशा है कि उनका यह उच्च आदर्श प्रकाश -स्तम्भ की भांति राजपूत समाज के लोगों का मार्ग -प्रदर्शन करता रहेगा ।उनकी गौरवमयी कीर्ति -गाथा सह्रदय जनों का स्तुति -पाठ बनकर उन्हें सदा आहादित करती रहेगी । मैं ऐसे दानवीर , निर्भीक ,समाज सेवी देशभक्त आत्मा को सत् सत् नमन करता हूँ ।जय हिन्द ।जय राजपुताना ।
लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव -लढोता ,सासनी ,जिला -हाथरस ,उत्तरप्रदेश
राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा